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छात्र जीवन यात्रा

Journey to Home
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जिस दिन मुझे ग्यारह चालिस पर लखनऊ कि ट्रेन पकड़नी थी उस दिन की मेरी शुरूआत होती है साढे नौ पर उठकर और धीरे-धीरे साढे दस तक तैयार होकर, चलो तैयार तो हो गये… पर अब जरा सबसे बाय तो कर दें क्योकि हम घर! जो जा रहे है।अपने रूमीज़ (roomies) नेपाली और गुजराती से बाय-बाय कहा और कुछ इन्सट्रक्सन (instruction) भी दिये। गुजराती यानी कि मिलाप भईया मुझे बाहर तक छोङने आये और नेपाली ने कमरे से ही बाय कहा, इस बाय-बाय के चक्कर में साढे दस का पौने ग्यारह हो गया और मुझे लगा की कही मेरी ट्रेन भी मुझे बाय ना कह जाये…तो हौस्टल से निकल कर मैने जल्दी करी और मैट्रो तक के लिये रिक्शा लिया, रिक्शे से उतर कर जब में कैलाश मैट्रो के टिकट काउनंटर पर पहुँचा तो ट्रेन के लिये लेट हो रहा हूँ इस बात की घबराहट से ज्यादा खुशी इस बात की हुई की न्यू दिल्ली तक का किराया जितना मैनें सोंचा था उससे 4 रुपया कम निकला, इस खुशी के साथ जैसे ही मैनें कैलाश मैट्रो के अंदर प्रवेश किया ही था! की मेरी बहन का फोन आ गया और तब मुझे फिर से आभास होने लगा की मै ट्रेन के लिये लेट (late) हो रहा हूँ,बहन को ये पता ना चले की मै ट्रेन के लिये काफी देरी से निकला हूँ इसलिये मैने फोन उठाते ही कहा की मैं यैल्लो लाइन(yellow line) मैट्रो पहुँचने वाला हूँ पर
बहन:- अचानक पूछा कि कितने स्टाप (stop) बचे है
लेखक:- बस 6स्टाप ( stop)
तब क्या था ! दीदी ने आखिर पूछ ही लिया इतनी लेट कैसे हो गये?
तब मैंने कहा हा…. हो गया हूँ कह कर जल्दी से फोन काट दिया और घङी की तरफ देखा तो उसमे ग्यारह बज गये थे , उसी वक्त मुझे अपने एक दोस्त की बात याद आई कि भाई वेलवेट लाईन की मैट्रो बहुत धीरे और थकी हूई चलती है, बस ये बात याद आने की देर ही थी की मैने अपने से ज्यादा मेट्रो को कोसना शुरू कर दिया की कितनी धीरे है वेलवेट लाईन की मैट्रो वाकई मे थकी हुई हालत मे चल रही है लगता है ये वाकई मुझे ट्रेन छुङवा के ही मानेगी। खैर वेलवेट लाईन की मेट्रो को मुझ पर तरस आ गया और उसने मुझे सैन्ट्रल सैक्रेटेरिट यानी की यैल्लो लाइन(yellow line) पर पहुचाँ दिया, अब समय हो चुका था सवा ग्यारह यानी की यहा से अब मेरे पास सिर्फ पच्चीस मिनट बचे थे,तो मैने देर ना करते हुऐ जल्दी से भाग कर मैट्रो बदली,इस बार भी वही हुआ जैसे ही मैने अपने पाँव मेट्रो मे रखे…. दीदी का फिर से फोन आ गया,अब दीदी ने पूछा की कहा पहुँचे मैने कहा यल्लो लाईन यहा से सिर्फ अब तीन ही स्टाप है फिर न्यू दिल्ली रेलवे स्टेशन इतना कह कर मैने फोन काट दिया और मन मे कैलकूलेट(calculate) किया कि मै ग्यारह पच्चीस तक पहूँच जाऊगा। देर ना हो स्टेशन पहुँच कर इसलिये मैने वहा से अपना मोबाइल निकाल कर ट्रेन नम्बर,कोच नम्बर और सीट नम्बर याद करने को सोचा इस चक्कर मे मैने जैसे ही अपना मोबाइल जेब से निकाला वो पास खङे पैसेंजर(passenger)के हाथ लग कर मैट्रो की फर्श पर गिरा और खुल गया बैट्री(battery) अलग, कवर(cover) अलग और मोबाइल अलग, मैने जल्दी से सब ढूढं कर मोबाइल वापस जोङा ही था कि न्यू दिल्ली रेलवे स्टेशन ठीक ग्यारह पच्चीस जितने बजे तक मैने पहुँचने का सोचा था उतने पे आ गया। अब जल्दी तो थी ही ट्रेन पकङने की,उस के साथ एक खुशी भी हो रही थी कि मेरे पहुँचने का अन्दाजा एक दम सही निकला, स्टेशन पर मेरी नजरे एक फौरेनर(foreigner) लङकी पर आ कर रुक गयी।जो लम्बाई मे मुझसे लम्बी थी और रंग मे मुझसे गोरी, जिसके बाल एक दम घने थे और चेहरे पर एक अलग ही तरह की खुशी थी जिसे देख कर एक पल को ऐसा लगा की इतनी जल्दी किस बात की है,पर फिर खुद को समझाते हुए मैने उस लङकी से बात करने के बहाने बाहर तक का रास्ता पूछ लिया,अपने दिल और मन पर पत्थर रख कर मैने मैट्रो का गेट एक्जिट करा।वहा से निकल कर मैने सीधे स्टेशन के चार्ट(chart)पर पहुँच कर ट्रेन का प्लेटफौम(platform) नम्बर देखा जो की आठ था।यहा से स्टेशन के अन्दर जाने के लिये मुझे एक छोटी चेक्गिं लाइन(checking line) से हो कर गुज़रना पङा ही था कि ग्यारह पैंतिस हो गया।मै फुटओवर ब्रिज (footover bridge) पर चढ रहा था कि अचानक एक पैंसेनजर(passenger) सीढ़ियों पर फिसल गया मैने उनको उठाया और सम्भल कर भाई कह कर फिर प्लेटफार्म (platform) की ओर दौङ लगाई।मै जल्दी से भाग कर प्लेटफार्म (platform) पर पहुँचा और एस6 कोच, सीट नम्बर64 को खोजने के लिए प्लेटफार्म (platform) पर भागना शुरू किया कि मुझे पता चला कि मै उल्टी दिशा मे भाग रहा हूँ। कोच और सीट दोनो ईंजन(engine)कि दिशा मे थे और मै दूसरी दिशा मे दौङ रहा था,अब मैनेईंजन(engine)की दिशा मे अपनी पूरी ताकत से दौङना शुरू कर दिया,जल्दी थी पर मन में एक खुशी भी थी की चलो कम से कम अबमैं सही दिशा मे दौङ रहा हूँ,कुछ ही देर मेएस1,एस2,एस3,एस4,एस5 डिब्बें को पीछे छोङ दिया और एस6 मे अपने पांव रखे ही थे कि फिर से फोन आ गया इस बार मम्मी का फोन आया था। मैने पसीना पोछा, दो तीन बार जोर की सास ली अपना सामान कन्धे से उतार कर फर्श पर रखा और फोन उठा कर कहा की मैं ट्रेन मे हू फिर माँ ने अच्छा खाना समय पर खा लेना और सामान का ध्यान रखना कह कर फोन काट दिया फिर मैने सामान अपने कन्धे पर रखा और अपनी सीट ढूँढी जो की साइड अपर(side upper) थी। अपना सामान मैने सीट के नीचे रखा और दूसरे पैसेंजर्स(passengers)के साथ थोङी देर लोअर बर्थ(lower birth) पर बैठ गया।उस डिब्बे मे एक परिवार के चार लोग मिया बीवी, उनके दो बच्चे के अलावा दो अन्य याञी भी थे। उन दोनो बच्चो की माँ उन दोनो की हरकतो से बहुत परेशान थी, वो बच्चे कभी शोर मचाते,कभी आपस मे लङते,तो कभी उनके बैग से सामान निकालने लगते थे।उनकी माँ उन्हे बार-बार कहती शोर मत करो दूसरे पैसेंजर्स(passengers)भी है…तुम दोनो को देख रहे है और सोच रहे है कितने खराब बच्चे है ये दोनो कितना शोर कर रहे है।इस बात को सुन कर वो दोनो बच्चे कुछ देर तक तो शान्त रहते पर जब भूल जाते तो फिर शोर मचाने लगते।उन दोनो बच्चो की मटरगश्ती से मुझे तो बङा आंनद आ रहा था और लग रहा था कि चलो इसी बहाने ये लम्बा सफर बङी असानी से छोटा हो जायेगा।उन दोनो बच्चो की बाते सुनते-सुनते कब दो से तीन घन्टे बीत गये पता भी नही चला।इस के बाद मै अपनी सीट पर जा कर थोङी देर के लिये सो गया जब आखँ खुली तो शाम हो गयी थी समये साढे पाँच हो गया था।फिर लैपटाप(laptop) बैग सेअपना लैपटाप(laptop) निकाल कर मैने मूवी देखनी शुरू की, मूवी देखते-देखते डेढ घण्टा और बीत गया यानी सात बज गया था और लैपटाप(laptop) की बैट्री भी खत्म होने वाली थी तो मैने लैपटाप(laptop) के खुद बन्द होने से पहले उसे बन्द कर के बैग(bag) मे रख दिया।अब समय था जोकी कटने का नाम नही ले रहा था और मन था जो की लगने का नाम नही ले रहा था। वो दोनो बच्चे भी उछल-कूद कर सो चुके थे। अब यहाँ से लखनऊ पहुँचने मे अभी काफी टाइम था और उसी वक्त फिर से माँ का फोन आया। मैने फोन उठाया…
माँ:- ख़ाना खाया?
भले ही मैने कुछ नही खाया था पर कह दिया हाँ!माँ हा खा लिया है…।
माँ:- ने पूछा क्या शाहजहाँपुर निकल गया है?
लेखक:-नही अभी नही आया है अभी आना है, पर क्यो पूछा आपने?
अब माँ ने कहा कि तुम्हारी ट्रेन तो शाहजहाँपुर से चार घण्टे लगा कर लखनऊ पहूँचेगी फिर लखनऊ से दो घण्टे लगाकर तुम बस से सीतापुर पहूँचोगे…इससे अच्छा है कि तुम शाहजहाँपुर के स्टेशन पर उतर कर बस से सिर्फ दो घण्टे लगाकर सीधे सीतापुर आ जाओ तो काफी जल्दी पहुँच जाओगे बाकी देख लो जैसा ठीक लगे…तुम्हे, फिर मैने भी हा ठीक है देखते है… कह कर फोन काट दिया।एक तो समय वैसे भी नही कट रहा था ऊपर से मेरे दिमाग को माँ की बात भी समझ आने लगी, शाहजहाँपुर जितना पास आ रहा था उतना ही माँ की बात समझ आती जा रही थी, फिर क्या था शाहजहाँपुर जब आया तब तक मेरा दिमाग भी माँ की बात को मान चुका था और मेरा सामान भी पैक(Pack) हो चुका था। अब बस देरी थी तो शाहजहाँपुर आने की। शाहजहाँपुर आते ही अपने समान के साथ मै ट्रेन से उतर गया और घङी मे समय देखा तो रात के आठ बज गये थे और मेरा घर यानी की सीतापुर जो की अभी शाहजहाँपुर से 85 कि.मी.दूर था यानी अभी भी मुझे य़हाँ से लगभग दो घण्टे तो लगने ही थे इस बात को जानते हुए भी मैने ज्यादा जल्दी नही करी और धीमी-धीमी चाल में रेलवे पूछ-ताछपे पहुँच कर सीतापुर तक की रेलगाङी पूछी तो पता चला की सुबह तक के लिये कोई गाङी नही है।यह सुनकर एक बार को थोङा सा डर लगा फिर लगा की चलो कोई नही शाहजहाँपुर में बसअड्डा तो आखिर होगा ही, बस से पहुँच जाऐंगे सीतापुर,इसी सोच के साथ मैंने शाहजहाँपुर रेलवेस्टेशन के बाहर निकलने तक शाहजहाँपुर बसअड्डे तक का रास्ता लोगों से पूछ लिया था तो पता था की मुझे कुछ दूर एकदम सीधे उत्तर की दिशा मे जा कर पहली गली से दाये मुङना था फिर भी मैंने कोई जोख़िम ना उठाते हुऐ शाहजहाँपुर बसअड्डे तक के लिये रिक्शा ले लिया। रिक्शे पर बैठकर मैं जब बसअड्डे पहुँचा तो मैंने रिक्शेवाले भईया से किराया पूछा…
रिक्शेवाला:- भईयादस रूपये हुये।
मैने अपनी जेब से उसे सौ का नोट दिया और बचे हुऐ रुपये माँगे
रिक्शेवाला:- भईयामेरे पास खुले रुपये नही है।
लेखक:-भाई खुले रुपये तो मेरे पास भी नही हैं।
रिक्शेवाला:- तो भाई खुले करवा लो मेरे पास भी खुले रुपये नही है आप आस-पास की दुकानो से हो सके तो खुला कर वा लो, यह सुनकर के मैने अपना भारी भरकम सामान अपने कन्धो पर टांगा और बसअड्डे पर मौजूद पान की दुकानो, रीचार्ज की दुकान इन सब दुकानो पर जाकर सौ के खुल्ले करवाने के लिये मेहनत की परन्तु वह सौ का नोट कैसे भी खुल्ला ना हुआ फिर मैने रिक्शेवाले भईया के पास वापस आकर कहा भईया खुल्ले तो हो नही रहे है अब बताओ क्या करू,फिर रिक्शेवाले भईया ने कहा भईया देख लो हो जाये तो…। उस रिक्शेवाले भईया का केवल कहना मात्र था की मैने फिर से वो नोट खुल्ला करवाने के लिये पूरी ताकत लगाई और इस बार बसअड्डे के बाहर मैजूद दुकानो से खुल्ला करवाने की सोची मेरे दिमाग में बस यही बात चल रही थी की मैने आज तक कभी किसी का एक रुपया भी बाकी नही छोङा है तो इस रिक्शेवाले भईया के दस रुपये कैसे बिना दिये मै निकल सकता हूँ, फिर मेरी नजर मेरी घङी पर गयी जिसमे साढे आठ बज चुके थे और मै अभी शाहजहाँपुर से निकला भी नही था। तो मैने रिक्शेवाले के दस रुपये को एक बार भुलाकर पहले बस के बारे मे पता करने का सोचा और बस की पूछ-ताछ खिङकी पर पहुँचा, वहा पहुँच कर पता चला की शाहजहाँपुर बसअड्डे से सीतापुर के लिये सुबह तक कोई बस भी नही है। फिर मुझे लगा की मै ट्रेन से उतर ही गलत गया, इससे सही तो मै ट्रेन मे ही बैठा रहता और लखनऊ पहुँचकर देर से ही सही पर सही सलामत पहुँच तो जाता गलत ही मै ट्रेन से उतर गया हूँ, ना ट्रेन से उतरता ना दस रुपये बकाया होते और ना मेरे घर पहुँचने की राह मुश्किल होती। ऐसे मौके पर मुझे बचपन मे पढ़ी कछुऐ और ख़रगोश की एक कहानी याद आई जिसमे ख़रगोश और कछुऐ के बीच मे एक दौङ प्रतियोगिता होती है। उस दौङ प्रतियोगिता में दोनो जानवर जब दौङ मे हिस्सा लेते है तो इस दौङ से पहले ही जंगल के बाकी सभी जानवर यह सोच लेते है की इस दौङ मे तो ख़रगोश ही जीतेगा क्योकी ख़रगोश काफी तेज भागता है और कछुआ बहुत धीरे-धीरे, पर जब दौङ शुरु होती है, तब ख़रगोश अपनी पूरी ताकत से भागता है और दौङ के बीच मे ही थक कर सो जाता है। वही दूसरी तरफ कछुआ धीरे-धीरे परन्तू सोए हुए ख़रगोश से पहले दौङ पूरी कर के जीत जाता है। मेरी कहानी मे बस इतना फर्क था की ख़रगोश और कछुआ दोनो मै ही था। यानी की जब मै चार से पाचँ घण्टे ज्यादा लगाकर कछुऐ की चाल चल कर घर पहुँच रहा था तो ऐसा करने की वजाय मैने खरगोश की चाल चलते हुए जल्दी करी, बीच का रास्ता अपनाया और अब मै बीच मे ही खङा था ना मुझे शाहजहाँपुरसे सीतापुर की कोई ट्रेन मिल रही थी ना कोई बसखैर चलो कुछ पैसेनजरो(passenger) से काफी पूछने के बाद यह पता चल गया की सीतापुर पहुँचने के लिये इस वक्त यानी की साढे आठ बजे मुझे दो टेम्पो बदल कर हाईवे पर पहुँचना होगा वही से मुझे सीतापुर की बस मिलेगी फिर क्या था मैने देरी ना करते हुये जल्दी से एक जाती हुई टैम्पो रोकी, उस टेम्पो मे दो पैसेंजर(passenger) पीछे की सीट पर बैठे हुये थे और उस टेम्पो को एक काफी कम उम्र का लङका चला रहा था, अगर मेरी उम्र बीस साल थी तो मुझे उसकी उम्र पन्द्रह साल लग रही थी। मैने टेम्पो वाले से पूछ लिया भईया हाईवे जाओगें…?
टेम्पो वाला:- भईया दो हाईवे है कौन से हाईवे जायेंगे आप…?
लेखक:- भाई जिस हाईवे से सीतापुर की बस मिले उस हाईवे की बात कर रहा हूँ मैं…।
टेम्पो वाला:- भईया मै नई बस्ती चौराहे(केरूगन्ज चौराहा) तक ही जाता हूँ उसके आगे आप को वही से दूसरी टेम्पो मिल जायेगी जो आप को उस हाईवे तक छोङ देगी जहा से सीतापुर की बसे जाती है…।
लेखक:- भईया इतनी रात मे पक्का है की वहाँ से टेम्पो मिल जायेगी? भाई बिल्कुल उसी जगह पर छोङना जहा से सीतापुर हाईवे के लिये बस मील जाये।
टेम्पो वाला:-हा भईया मिल जायेंगी और मैं वही पर छोङूगा जहाँ से आप को हाईवे के लिये टेम्पो मिल जायेंगी…।
इतना सुन कर मै उस टेम्पो मे अपने सामान के साथ टेम्पो वाले के बगल वाली सीट पर बैठ गया।मुझे टेम्पो मे बैठे-बैठे थोङी दूर पर याद आया की मैने रिक्शे वाले के दस रुपय नही दिये थे क्योकी उसके पास सौ के खुल्ले रुपये नही थे। इस बात के याद आते ही मैने तुरन्त टेम्पो वाले लङके से पूछा भाई सौ के खुल्ले होगे तुम्हारे पास…।
टेम्पो वाला:- भाई मेरे पास खुल्ले रुपये नही है।
लेखक:-भाई खुल्ले तो मेरे पास भी नही है इसी कारण अभी रिक्शेवाले के दस रुपये भी नही दे पाया था मै और आगे जो टेम्पो वाला मिलेगा कही ऐसा ना हो की उसके पास भी खुल्ले रुपये ना हो।
टेम्पो वाला:- भाई आप के पास खुल्ले नही है कोई बात नही मुझे मेरे रुपये नही चाहिये है… इतनी रात मे आप सही सलामत बस तक पहुँच जाये यही मेरे लिये बहुत है। क्योकी दो दिन पहले एक लङके को मैने टेम्पो तक छोङा था और वह टेम्पो का इन्तजार करे बगैर किसी ट्रक वाले से लिफ्ट माँग कर उसकी ट्रक मे बैठ गया था। उस ट्रक वाले ने उस लङके को मार के फेक दिया और उसका सामान लूट कर भाग गया था। इसलिये भईया आप टैम्पो पर ही भरोसा करियेगा और उसके आगे बस पर बैठकर ही सीतापुर जाने की कोशिश करियेगा, क्योकी ये इलाका सुरक्षित नही है। पर भाई आप के पास खुल्ले नही है तो आप को आगे टैम्पो और बस के लिये दिक्कत हो सकती है और खुल्ले रुपये मेरे पास भी नही है…।

वो टेम्पो वाला लङका जो की मुझसे भी छोटा था देख के लगता था की शायद उस का स्कूली सफर बहुत जल्दी खत्म हो गया हो और टेम्पो का सफर पेट पालने के लिये शुरु किया हो। जिस उम्र मे मै अपने घरवालो से, अपने दोस्तो से अपनी बात मनवाने के लिये लङा करता था उस उम्र मे यह लङका कितना समझ दार है…यह मुझे ना जानता है फिर भी मेरे जैसे लापरवाह इन्सान की फिकर कर रहा है तो मुझे काफी बुरा भी लग रहा था। फिर पीछे बैठे दोनो पैसेनजरो(passengers)को मेरी और टेम्पो वाले कि फिकर दिखाई दे रही थी, इसलिये उन दोनो ने अपने खुल्ले रुपये आपस में जोङकर मेरे सौ के नोट को खुल्ला कर दिया। आखिरकार मेरा वो सौ का नोट खुल्ला हो ही गया परन्तु इस के बावजूद उस टेम्पो वाले लङके ने मुझसे रुपये नही मांगे और मेरी भी हिम्मत नही हुई की मै उसे इन बातो के बाद रुपय दे सकू…। उस टेम्पो वाले लङके ने मुझे उस नईबस्ती चौराहे पर उतारा और जाते-जाते यही बोल गया भाई यही पर थोङी देर इन्तजार करो आपको हाईवे पहुँचाने वाली टेम्पो जरुर मिल जायेगी बस थोङी देर इन्तजार करियेगा…। उस वक्त रात के सवा नौ बज चुके थे और मै एकदम सन्नाटे वाली जगह पर अपने सामान के साथ खङा था उस वक्त उस चौराहे पर कोई मौजूद नही था बस लाइटे जल रही थी जिनसे मुझे थोङी राहत मिल रही थी।उस चौराहे पर लोगो के मकान तो मौजूद थे पर लोग नही थे शायद वे अपने-अपने घरो के अन्दर थे। मै उस सुनसान जगह पर यही सोच रहा था कि अगर टेम्पो आने से पहले मुझ पर या मेरे सामान पर किसी भी तरह का हमला होता है तो मुझे शोर मचाकर इन अन्जान लोगो को उनके घरो से अपनी मद्द के लिये निकालना पङेगा, तो मै उस सन्नाटे वाली जगह पर शोर करने के लिये एकदम तैयार खङा था। टैम्पो कै लिये इन्तजार बढता जा रहा था लग रहा था की कही शहर से बाहर सन्नाटे वाली जगह पर आकर कोई गल्ती तो नही कर दी है…। मुझे इन्सानो से ज्यादा डर उस वक्त कुत्तो से लग रहा था जो भौक-भौक कर पता नही किसे डराने की कोशिश कर रहे थे…? शायद मुझे! मुझे समझ नही आरहा था की टेम्पो को आने मे इतना वक्त क्यो लग रहा है…।लम्बे समये के इन्तजार के बाद उस सन्नाटे वाली जगह पर कुछ इन्सानो से भरी टैम्पो को देखकर जान में जान आई। सामने से आरही टेम्पो को मैने हाथ दे कर रोका उस टेम्पो मे एक बूढ़ा आदमी अपनी पत्नी के साथ बैठा था। मैने टेम्पो वाले से पूछा भईया टेम्पो हाईवे की तरफ जा रही है क्या…?
टेम्पो वाला:-भाई टेम्पो कही नही जा रही है मैं टेम्पो को हाईवे की तरफ ले जा रहा हूँ…।
यह सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना नही रहा, पर फिर भी मैने टेम्पो वाले से पूछा भाई वही हाईवे जहा से सीतापुर की बस जाती है?
टेम्पो वाला:- जी भईया बिलकुल वही जा रही है, अब आप बैठेंगे!
जी भइया कहकर मै बेहद खुशी के साथ अपना सामान लेकर टेम्पो में बैठं गया। उस टेम्पो मे बैठ के मुझे यही लग रहा था की अब घर पहुँचने मे जितना भी समय लगना है लग जाये अब बस कोई भी चीज बाधा बनकर सामने नही आनी चाहिये, अब मुझे टेम्पो मे बैठें-बैठें हाईवे तक पहुँचना है, जहा से मुझे सीतापुर की बस पकङनी है और फिर घर पहुँचना है। चलो इस बार कोई बाधा नही आई और मै टेम्पो मे बैठं कर हाईवे पर पहुँच गया जहा से मुझे बस खङी मिल गयी, इस टेम्पो वाले ने टेम्पो रोक कर कोने में खङी करी, मेरे उतरने से पहले ही टेम्पो वाले ने जाकर बस वाले से पूछ लिया की बस कहा जा रही है और फिर मुझे आकर बताया। मैं अपना सामान टेम्पो से उतार रहा था टेम्पो वाले के मुख से यह सुनकर की बस सीतापुर जा रहीहै मैने अपना सामान और तेजी से निकाल कर अपने कन्धे पर टागा और बस की ओर बढा ही था की टेम्पो वाले की आवाज आई…
टेम्पो वाला:-भईया रुपये तो दो।
यह सुनकर मै तुरन्त रुक गया, अरे हा! कहकर पैसे दे दिये और बस मे बैठ गया। पूरे दिन की थकान के बाद अब मै तो घर जारहा था परन्तु मेरा दिमाग नही, मेरा दिमाग बस पूरे दिन होने वाली बातो पर ठहर सा गया था। मै बस मे टिकट लेने के बाद सबसे आगे की सीट पर बैठा था ताकि रास्ता जाते हुये देख कर खुश हो सकू पर मेरा दिमाग वो तो सफर मे ही रह गया था। जैसा मैने सोचा था की सबसे आगे बैठकर जब तेजी से रास्ता खत्म होते देखूँगा तो थोङी खुशी होगी ऐसा हो नही रहा था। मेरे दिमाग मे सफर के शुरू होने से लेकर मेरे हाईवे से बस पकङने तक की हर बात याद आरही थी की किस तरह से मै बङे आराम से सुबह उठकर अपने दोस्तो से बाय कह कर होस्टल से निकला, मैट्रो मे पहुँच कर दीदी के फोनो का जवाब दे-देकर मैने मैट्रो का सफर पूरा करा फिर मेरी मुलाकात एक गोरी मेम यानी की फौरेनर लङकी से हुई उसे भुला पाता की उससे पहले ट्रेन छूटने लगी तो भाग-भाग कर उसे भी पकङा। ट्रेन मे बैठकर आराम से लखनऊ से सीतापुर जा रहा था तो माँ के फोन पर शाहजहाँपुर पर ही उतर गया। शाहजहाँपुर से ये भी पता चल गया की आज यहां से है ना कोई ट्रेन ना बस, बस पहुँच सकते है तो अब टेम्पो बदल कर तो वो प्रयास भी करा,जिस्से मेरी मुलाकात उस टेम्पो वाले से भी हुई जो काफी कम उम्र का था और मेरा भला सोच कर मुझसे किराया भी नही लेना चाहता था और नही लिया। इतना बङा दिन बीतने, पूरे दिन इतना कुछ होने के बाद अब मै बस से घर पहुँच रहा था पर यह मेरे लिये सब कुछ नही था। क्योकी मै इस एक दिन के सफर से काफी कुछ सीख सा गया था। पूरे सफर मे कभी मै सफर के बारे मे ध्यान लगाता रहा तो कभी ये सोचता रहा की घर पहुँच कर माँ से लङूगा, इन सब बातो की वजह से मै समय भी नही देख रहा था अब मैने सफर शुरू करने से पहले और सफर के समय तो बार-बार घङी की ओर देखा था परन्तू बस मे बैठने के बाद अब समय देखने की कोई कोशिश भी नही की शायद इसलिये क्योकी अब मै बस घर पहुचना चाहता था। जब मै घर पहुँचा तो घर के सभी सद्स्यो से तीन महीनो बाद मिल कर सब भूल गया। जहा बस मे सोचा था की घर पहुँच कर माँ से लङूगा खुशी मे वो भी नही हुआ। घर पहुँचने पर घर वालो ने मिल कर जल्दी-जल्दी मेरा खाना लगाया। मुझे भूख भी तेज लगी थी तो मैने जल्दी-जल्दी खाना खाया और सोने चला गया। सोते समय भी पूरे दिन की थकान के बावजूद जल्दी नींद नही आई, पूरे दिन की बाते ही याद आई और एक फैसला भी किया कि इस पूरे दिन जो भी हुआ इस को मै लिखूँगा। जिस वजह से इस कहानी का जन्म हुआ, यही सोचते-सोचते कब नींद आ गयी मुझे पता भी नही चला। फिर अगली सुबह घर मे उठ कर मैने सबसे पहले इस पूरे दिन की बातो को शब्दों मे बदलना शुरू कर दिया।
Sarthak Agarwal
Sitapur

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